शायद होती है आंसुओं की भी एक भाषा अनूठी सी
आते हैं तभी, जब खुद से आँखें हों रूठी सी
सिखाते हैं आंसू, जीना
जीते जी, हर ग़म को पीनाटूट कर बिखरने लगती है जब दिल की ज़मीं
छलक पड़ते हैं आँखों से वो तब, वहीं
यूँ ही तो नहीं आ सकते हैं ना वो, किसी के भी लिए...
गंगा जमनुा बहेगी भी तब, जब दिल कराह के कहे...
हाँ, यूँ तो ये सच है और रहेगा भी, कि कुछ भी शर्त या उम्मीद नहीं रखी है वैसे
पर उनपे लुट चुके इस दिल को कैसे मनाएं, कि उनके बिना जियें, तो जियें कैसे?